1813 में फ्रांसीसी जनरल नेपोलियन बोनापार्ट रूस की विनाशकारी सर्दियों में अपनी सेना खोने के बाद, फिर से एक नई सेना जुटाने में सफल हुए। नेपोलियन ने उस साल 5 लाख सैनिकों की एक सेना बनाई जिससे वह यूरोप को जीतने का सपना देखने लगे। मगर उसी साल यह सेना टायफस की बीमारी से ग्रस्त हो गई। कुछ ही महीनों में नेपोलियन के आधे सैनिक इसकी चपेट में आकर मर गए। बिना कोई युद्ध लड़े ही नेपोलियन बोनापार्ट ध्वस्त हो गए ।
शायद आपने टायफस बीमारी का नाम भी ना सुना हो। यह लीख के साथ चलने वाले एक बैक्टीरिया से फैलता है। यह लीखें खंदकों में लड़ने वाले सैनिकों के पुराने कपड़े और कंबलों में रहती थीं। सेनाएं, दुश्मन से ज्यादा टायफस से डरती थी । सन् १९२० तक टायफस से १५ फीसदी मरीजों की मृत्यु हो जाती थी । आज विज्ञान के कारण, इस रोग का मृत्यदर लगभग नगण्य है।
कोरानावायरस काल में आजकल एक शताब्दी पुराना स्पेनिश फ्लू चर्चा में है। इसकी शुरुआत 1918 में प्रथम विश्व युद्ध में उन खुदाई करने वाले उन चीनी मजदूरों के साथ हुई, जो इस वायरस को चीन से यूरोप लेकर आए। इस वायरस ने युद्ध के दौरान दोनों ही तरफ से सैनिकों को मारा और दोनों सेनाओं में हाहाकार मची। 1919 में युद्ध के पश्चात यह वायरस इसे वापस आते सैनिकों के साथ सभी देशों में फैल गया। इस दूसरी लहर में वायरस ने कई शहरों को तहस-नहस किया और 2 साल के भीतर 10 करोड़ लोगों तक की जान ली। मरने वालों में 40 फ़ीसदी भारत से थे। यहां तक कि महात्मा गांधी और अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन को भी यह बीमारी हुई।
उस समय के वैज्ञानिक मजबूर थे। उन्हें पता था कि स्पेनिश फ्लू किसी बहुत ही छोटे जीव से होता है। लेकिन, क्योंकि उस समय इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का आविष्कार नहीं हुआ था इसलिए वायरस को देखने में वह अक्षम थे। उस समय के वैज्ञानिकों को RNA का ज्ञान नहीं था – जिससे वायरस बनते हैं। मगर तब भी हमने हार नहीं मानी और इस वायरस के खिलाफ जो बन पड़ा हमने इस्तेमाल किया – पुरानी वैक्सीन का मिश्रण , हर प्रकार की दवाइयां और जड़ी बूटियां। सब कुछ हमारे खिलाफ होने के बावजूद 2 साल में मानवता इस अनजान और अदृश्य दुश्मन हो हराने में सफलता प्राप्त करी।
सच तो यह कि हम एक बहुत ही जीवट प्रजाति हैं। यही हमारा इतिहास है और इस संघर्ष में हमारा सबसे बड़ा हथियार प्रकृति का एक उपहार है – हमारा असामान्य रूप से बड़ा दिमाग। हमने अपने विकास पथ में हिम युग को पार किया, अपने से बड़े और तेज जानवरों पर विजय प्राप्त करें और सभी प्रजातियों से ऊपर अपना स्थान बनाया। 50,000 साल पहले भी, सिर्फ डंडों और पत्थरों के साथ, मानवों का एकजुट समूह सब पर भारी पड़ सकता था। एकता हमारा हथियार है।
टायफस की तरह ही, हमने चेचक और पोलियो पर विजय प्राप्त करी। टीबी अब एक बड़ी महामारी नहीं बची और हैजे से गांव के गांव अब समाप्त नहीं होते। 200 साल से हम अलग – अलग वायरस से लड़ रहे हैं मगर सच तो यह है कि हमने अपने इस छोटे मगर जानलेवा दुश्मन को पहली बार 1935 में देखा और इसकी पूरी संरचना की जानकारी हमें ही 1955 में हुई। इसके बाद से विज्ञान ने वायरस के खिलाफ लड़ाई में निरंतर तेजी आयी।
कुछ लोग कह रहे हैं कि नॉवेल कारोनावायरस अगला स्पेनिश फ़्लू बनेगा। मगर विज्ञान की इस गति को देखते हुए ऐसा होना मुश्किल है। आपकी नजरों से दूर, दुनिया भर की लैबोरेट्री में लाखों वैज्ञानिक नॉवेल करोना वायरस के खिलाफ लड़ाई निरंतर लड़ रहे हैं। और विज्ञान के महासंग्राम में कई कीर्तिमान अभी ही बन चुके हैं।
जनवरी 2020 में, पहले इंफेक्शन के लगभग डेढ़ महीने बाद, चीन ने नॉवेल कोरोनावायरस का पूरा जीनोम, यानी उसकी संरचना, दुनिया भर की लैबोरेट्रीज को उपलब्ध करा दिया था। डेढ़ दशक पहले ऐसा करने में ही 1 साल से ऊपर लग जाता। जीनोम मिलते ही वैक्सीन बनाने का काम पूरी दुनिया में एक साथ चालू हो चुका है।
दुनिया भर की सरकारों ने हजारों करोड़ रुपए इस को हराने में लगा दिए हैं। और इसके नतीजे अब आने शुरू हो रहे हैं। अमेरिकी सरकार की स्वास्थ्य संस्था BARDA ने प्राइवेट कंपनियों के साथ मिलकर वैक्सीन बनाने की मुहिम चालू करी। सनोफी और जानसन एंड जानसन भी इसमें शामिल हैं। यह कंपनियां पारंपरिक तरीके से वैक्सीन बना रहीं है – जिसमें वायरस के एक कमजोर रूप में व्यक्ति के अंदर डाल दिया जाता है जिससे कि उसका अपना इम्यूनिटी सिस्टम वायरस से लड़ने की कला सीख जाता है।
वैक्सीन बनाने के एक नए तरीकों को भी हम लोग आजमा रहे हैं – रैपिड रिस्पांस सिस्टम। इसमें कमजोर वायरस की बजाए हम वायरस से लड़ने के लिए जरूरी एंटीबॉडी बनाने का ज्ञान सीधे शरीर के इम्यूनिटी सिस्टम को देते हैं। यह कार्य मैसेंजर RNA या DNA द्वारा शरीर में पहुंचाया जाता है। आसानी से समझने के लिए मान लीजिए कि यदि पारंपरिक तरीके से बनाई वैक्सीन को हम कंप्यूटर पर एक डॉक्युमेंट टाइप करने के तरह सोचें, तो रैपिड रिस्पांस द्वारा बनी वैक्सीन ऐसे होगी जैसे एक पहले से टाइप हुई फाइल सीधे कंप्यूटर में कॉपी कर दी जाए।
यह तरीका नया है इसलिए इसके नतीजे अभी हमें देखने हैं। अब तक के परिणाम सराहनीय है। मोडर्णा नाम एक कंपनी ने मैसेंजर RNA का उपयोग करके अपनी पहली ट्रायल वैक्सीन, जीनोम मिलने के महज 42 दिनों बाद तैयार कर ली थी। 2003 में जब SARS वायरस फैला था तब इस चरण तक पहुंचने में 20 महीने लगे थे। एक और कंपनी इनोविया ने DNA मैसेंजर का इस्तेमाल अन्य वायरस के खिलाफ पहले ही कर रही थी । वह उसी ज्ञान का इस्तेमाल नॉवेल कोरोनावायरस के खिलाफ वैक्सीन बनाने के लिए कर रही है, जिससे कि परिणाम जल्दी आए।
मगर कई कीर्तिमान स्थापित करने वाली विज्ञान की दौड़ के बाद भी सबसे जल्दी आने वाली वैक्सीन में 1 साल से अधिक का समय लग सकता है। इस अंतराल को भरने करने के लिए ऐसी दवाइयों पर काम हो रहा है जिससे इस वायरस से होने वाले जानलेवा प्रभाव को कम हो। गिलेड कंपनी, remdesivir नाम की एक दवा का चीन और अमेरिका में वायरस ग्रस्त लोगों पर प्रयोग करके देख रही है। इसके साथ मलेरिया की दवा hydroxychloroquine का भी परीक्षण नॉवेल करोना वायरस पर चल रहा है। यह दवा कितनी प्रभावशाली है और इससे होने वाले दुष्प्रभाव क्या हैं, यह जानना बाकी है।
कोरोनावायरस के खिलाफ हमारी लड़ाई सिर्फ चिकित्साशास्त्र तक ही सीमित नहीं है। पिछले हफ्ते से अनेक ऑटोमोबाइल कंपनियां अपने प्लांट में गाड़ियों की जगह वायरस से लड़ने के लिए वेंटिलेटर बनाना शुरू कर रही हैं। हम सुपरकंप्यूटर्स का इस्तेमाल वायरस के खिलाफ विभिन्न परिस्थितियों को जांचने के लिए कर रहे हैं। इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया के वैज्ञानिक एकजुट हैं।
हमें पता है हमारा दुश्मन कौन है और उसको हराने के लिए क्या करना है। विज्ञान की जीत निश्चित है मगर उसे अपने हथियार तैयार करने के लिए समय की आवश्यकता है। यह समय हमें देना है – सोशल डिस्टेंसिंग द्वारा। लड़ाई थी तो हम जीत जाएंगे लेकिन हमारी कोशिश है कि यह लड़ाई जल्द जीती जाए और कम से कम लोग इसमें हताहत हो। इसमें नागरिक की भूमिका प्रमुख है।
As published in Dainik Jagran on March 29, 2020.
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