As published in Dainik Jagran (National Edition) 15-10-2020.
मार्च 1918 में, जब प्रथम विश्व युद्ध अपने अंतिम साल की ओर बढ़ रहा था, तब स्पैनिश फ्लू की पहली लहर आई थी। ऐसा माना जा रहा था कि शुरुआती लहर चीनी मज़दूरों के कारण आई, जिसने पहले यूरोप के युद्ध क्षेत्रों और सभी पक्षों के सैनिकों को अपनी चपेट में लिया और फिर जब वे अपने-अपने देश लौटे या जेलों से छूटकर अपने देश पहुँचे तो उनके साथ उन देशों के अंदरूनी इलाकों तक फैल गई। जून तक, यह संक्रमण ऑस्ट्रेलिया, रूस, चीन, भारत, अफ्रिका, जापान और यूरोप के अधिकांश हिस्सों तक पहुँच गया था। फिर जुलाई 1918 में, संक्रमण में कमी आई। पहली लहर कम घातक थी, जिसमें कई लोग बीमार तो हुए, लेकिन मृत्यु दर इतनी कम थी कि क्वारंटीन के किसी भी कदम को लागू नहीं किया गया।
फिर सितंबर 1918 में, दूसरी लहर आई। इस समय तक संक्रमण दुनिया के सभी महादेशों तक पहुँच चुका था और यह बेहद घातक साबित हुआ। पहली लहर में, छोटे-छोटे बच्चे या फिर बुज़ुर्ग महामारी के शिकार हुए, और बच्चों की ज़िंदगी इसने थोड़े-बहुत लक्षणों के बावजूद या बिना लक्षण के ही बख्श दी। लेकिन 1918 की सर्दियों में स्पैनिश फ्लू की जो दूसरी लहर आई उसने ऐसा रूप दिखाया जिसे डब्लू-कर्व कहते हैं, जब मरने वालों की सबसे अधिक संख्या न केवल बच्चों और बुज़ुर्गों की थी, बल्कि बीच की उम्र के लोग, जो 25 से 35 साल के स्वस्थ और जवान लोग थे वे भी भयंकर तेजी से इसके शिकार हुए। 1918 में, स्पैनिश फ्लू की दूसरी लहर के आने के 3 से 4 महीने के भीतर, अमेरिका में 300,000 लोगों की मौत हो गई, 10 लाख की आबादी वाली मुंबई में मौत का आँकड़ा 15,000 बताया गया और देखते ही देखते पूरे भारत में मरने वालों की संख्या 2 करोड़ के करीब पहुँच गई। स्पैनिश फ्लू की दो और लहरें आईं जिनके बाद उसका प्रकोप अपने आप ही समाप्त हो गया, लेकिन दूसरी लहर उन सभी में सबसे घातक साबित हुई।
बेशक दूसरी लहर इतनी जानलेवा साबित हुई तो इसका एक बड़ा कारण यह था कि उन दिनों विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी कि उस संक्रमण के कारण को भी समझा जा सके। हालाँकि, उसके रौद्र रूप के लिए महज तकनीकी कारण ही ज़िम्मेदार नहीं थे।
पहली लहर के बाद, दुनिया भर में एक लापरवाही देखी गई जब लोगों ने मान लिया कि स्पैनिश फ्लू का सबसे बुरा दौर निकल चुका है और ज़्यादातर लोग ये मानने को तैयार ही नहीं थे कि एक विकराल दूसरी लहर आने वाली है। स्पैनिश फ्लू अभी गया भी नहीं था कि ज़िंदगी “सामान्य” हो गई। परेड होने लगे, यात्रा को बढ़ावा दिया गया और त्योहार मनाए जाने लगे। यह झूठी सकारात्मकता जानलेवा साबित हुई। दूसरी बात, सर्दियों में वायरस से फैलने वाले संक्रमण कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं – धूप और गर्मी के असर से अधिकांश वायरस कमज़ोर पड़ जाते हैं। उस समय के वैज्ञानिकों को इस बात की जानकारी नहीं थी क्योंकि उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि एक वायरस दिखता कैसा है।
2020 में जब हम और भी ख़तरनाक नोवेल कोरोना वायरस से जूझ रहे हैं तब हमें एक सदी पहले के ऐसे सारे सबक को भूलना नहीं चाहिए। “ज़िंदगी चलती रहनी चाहिए” ऐसा सोचकर हमें कोरोना वायरस के साथ सबकुछ सामान्य नहीं कर लेना चाहिए। एक ऐसे दुश्मन के साथ हम चैन से नहीं जी सकते जो न जाने कब क्या कर जाए। पुराने दिनों की तरह हम न परीक्षाएँ करा सकते हैं और ना ही चुनाव। ऐसा कोई भी आयोजन हमें उसी ख़तरनाक मोड़ पर ला खड़ा करेगा जैसे हालात स्पैनिश फ्लू की पहली और दूसरी लहर के बीच बने थे। दशहरा, दिवाली, क्रिसमस और नया साल 2019 की तरह नहीं मनाया जा सकता है। हम चाहे इससे कितनी ही नफरत क्यों न करें, लेकिन जब तक यह वायरस हमारे आसपास है तब तक ज़िंदगी सामान्य ढंग से नहीं चल सकती है। अब तक रोकथाम के जिन कदमों के बार में हम जान चुके हैं, उन्हें कानूनी और सामाजिक रूप से पूरी सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। यह मान लेना मूर्खता है कि जवान लोग “सुरक्षित” हैं क्योंकि हम जानते हैं कि यह वायरस रंग बदल सकता है। याद रहे कि हमने इस वायरस को सिर्फ गर्मियों में देखा है, जब शायद यह कमज़ोर था, और सर्दियों में इसके दुष्प्रभावों का परीक्षण बाकी है। और फिर हम एक मिले-जुले संक्रमण के बढ़ते ख़तरे को अभी से ही देख रहे हैं, जहाँ कोरोना वायरस डेंगू, टाइफाइड और कॉलरा के साथ मिलकर और भी घातक रूप में सामने आ रहा है। यहाँ तक कि अमेरिका भी आने वाली सर्दियों में मौसमी फ्लू और कोविड-19 के मिले-जुले संक्रमण के दौर से निपटने की तैयारी कर रहा है और यूरोप संक्रमण की दूसरी लहर का सामना कर रहा है। याद रहे कि साल की शुरुआत में कोविड19 की पहली लहर ने हमें यही सिखाया है कि स्वास्थ्य सेवा पर गंभीर संकट की स्थिति में, विश्व व्यापार और गठबंधन विफल हो जाते हैं और हर देश को सही मायने में उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। भारत को इस चेतावनी को गंभीरता से लेना चाहिए और ज़रूरी संसाधनों तथा दवाइयों का स्टॉक जमा कर लेना चाहिए, स्वास्थ्यकर्मियों को प्रशिक्षण और सुरक्षा देनी चाहिए जिनकी ज़रूरत सर्दियों में दूसरी लहर के आने पर पड़ेगी। आर्थिक गतिविधियों को बनाए रखने और संक्रमण से ज़िंदगियों को बचाने के बीच की डगर पर चलना काफी मुश्किल होगा। सरकार को इस भूमिका को निभाना है, और विपक्ष को भी इस महामारी को राजनीतिक हथियार बनाकर मौके का फायदा उठाने के बजाए समझदारी दिखाने की ज़रूरत है। आने वाले महीनों में सियासी दाँवपेच की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
अब बात आती है कि समाधान को लेकर हमारी सोच क्या होनी चाहिए। हमें वैक्सीन पर बहुत ज़्यादा भरोसा करने से बचना चाहिए। वैक्सीन के परीक्षण की प्रक्रिया काफी धीमी होती है। वैसे भी उन्हें पूरी तरह से स्वस्थ लोगों को ही दिया जाता है और हमें यकीन करना होता है कि उनके दुष्परिणाम न हों। इस कारण, उनके मामले में बहुत जल्दबाजी नहीं की जा सकती। इस वजह से ही चार चरणों की जाँच का पालन किया जाता है। आँकड़ों के लिहाज से कहें तो 20 में से लगभग 19 वैक्सीन, जो पहले चरण में सफल होते हैं वे परीक्षण के आखिरी चरण में पहुँचने तक विफल हो जाते हैं। अगर इस साल के आखिर तक कोई वैक्सीन आ भी गई, तो आपके पास पहुँचने में उसे कई महीने लग जाएँगे। अगर यह आपको मिल भी गई, तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि कुछ महीने बाद यह प्रभावशाली होगी क्योंकि वायरस पहले ही रूप बदलने (अपनी संरचना को बदलने) की अपनी क्षमता को दिखाने लगा है। अपनी चिकित्सा बिरादरी की सलाह पर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ठीक ही कह रहे हैं कि कोरोना वायरस को रोकने के लिए वैक्सीन से कहीं ज़्यादा कोरोना वायरस का इलाज करने वाली दवाइयों को जल्द से जल्द बनाने की ज़रूरत है।
उस दिन के आने तक, आपके पास इस वायरस से लड़ने के लिए सिर्फ अपना मास्क, सामाजिक दूरी और अपनी इच्छीशक्ति है।
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